रविवार, 7 अक्तूबर 2012

मिट्टी का तेल

         चार साल के रहमत के लिए मिट्टी सबसे अज़ीब चीज़ थी। अपने सड़क के किनारे के, बड़ी मुश्किल से घर की परिभाषा में आने वाले घर में, मिट्टी ही सबसे ज़्यादा आने वाली मेहमान थी। उस "घर" में हर चीज़ पर मिट्टी ने अपनी छाप छोड़ी थी, और पोंछ देने पर वह फिर जमने को अमादा थी।
        आज शाम घर का स्टोव खामोश था। उसके अब्बा की फिर से नौकरी चली गयी थी| उसकी माँ, सर पर हाथ धरे, ढलते, लाल सूरज को अपनी लाल हो आई आँखों से देख रही थी| कोसती भी तो किसको, हर बार, वह किस्मत को कोसकर देख चुकी थी| अब सदाबहार चुप्पी ही उसकी तकदीर में लिख दी गयी थी|
       "मैं ज़रा बाहर हो कर आता हूँ, देखूं, शायद कोई तेल उधार दे दे|" अब्बा को रहमत ने कहते हुए सुना| उसकी माँ ने हल्के से सर हिला दिया, बोली कुछ नहीं| रहमत को यह लफ्ज़ "मिट्टी का तेल" समझ नहीं आया| माँ से बोला,"माँ, ये अब्बा क्या कह रहे थे"? माँ बोली,"बेटा, मिट्टी का तेल, जो मिट्टी से निकलता है, जिससे स्टोव चलेगा, खाना बनेगा!" रहमत को झटका लगा, इस मिट्टी से तेल भी निकल सकता है! पर वह अपने मन ही मन सोचकर चुप रह गया| सुबह से शाम तक वह मिट्टी में सना रहता है, उसके घर में मिट्टी की भरमार है, तो ये लोग इससे तेल क्यों नहीं निकाल लेते?
    बाहर कुछ आवाज़ हुई, अब्बा को शौकत के भाई से तेल उधार मिल गया था| तेल, एक रूहआफ्ज़ा की बोतल में लाकर अन्दर रख दिया गया| रहमत के लिए ये एक अजूबा था, मिट्टी का तेल! अलग अलग ख्याल उसके मन में आने लगे| फिर वह बोतल लेकर तेल को सारे घर के कच्चे फर्श पर गिराने लगा| उसकी माँ ने देखा, चिल्लाई,"अरे ये क्या कर रहा है रहमत?" बोला ,"माँ, मिट्टी का तेल है ना, अपनी मिट्टी में वापिस डाल रहा हूँ| अब हमेशा यहीं से निकालूँगा, हमें कभी माँगना नहीं पड़ेगा!"
    उसकी माँ से कुछ बोले ना बना, दो सूखे से आँसू उसके कोरे गालों से ढुलक गए| मासूमियत और अपनी तकदीर को कोसने के बीच का रास्ता चुनना बहुत मुश्किल था| उधर रहमत ऐसे तेल छिड़कता जा रहा था जैसे अपना खेत सींच रहा हो, आखिर वह मिट्टी का तेल ही तो था!
- अक्षत डबराल

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