रविवार, 30 सितंबर 2012

मैंने ज़िन्दगी को नहीं जिया, ज़िन्दगी ने मुझे जिया है|

मैंने ज़िन्दगी को नहीं जिया, ज़िन्दगी ने मुझे जिया है|
जो कुछ किया इसने किया, मैंने कहाँ कुछ किया है?
अपने अरमाँ निकालने को इसने, मुक़द्दर का सहारा लिया है|

हर चीज़ के पीछे है यही, पर नाम हमारा लिया है|
ले लेकर लम्हों के धागे, इस तस्वीर को सिया है|
मैंने ज़िन्दगी को नहीं जिया, ज़िन्दगी ने मुझे जिया है|

हल्का ही है नशा, पर हाँ मैंने किया है|
मैंने तो बस इसे चखा है, पर इसने तो मुझे पिया है|
मैंने ज़िन्दगी को नहीं जिया, ज़िन्दगी ने मुझे जिया है|
- अक्षत डबराल

आईने सा

आईने सा दोस्त कहाँ,
जो मुँह पर सच बोलता हो ?
आईने सा जौहरी कहाँ,
जो आदमी का वज़ूद तोलता हो ?
आईने सा मुखबिर कहाँ,
जो मन के राज़ खोलता हो ?
और आईने सा उस्ताद कहाँ,
जो आँखों के पर्दे टटोलता हो ?
- अक्षत डबराल

आसमाँ को देखा

आसमाँ को देखा, पूछा,
तुम उंचाई से थकते नहीं हो?
बोला, मैं कहाँ ऊँचा हूँ,
तुम्हीं मुझे नीचे रखते नहीं हो|
मैंने कहा, नीचे रख दें तो,
हम सरहद किसको मानेंगे?
जब उड़ने को मिल जाएँ पंख,
हम मंज़िल किसको मानेंगे?
बोला, इतना भी मैं दूर नहीं,
कि उड़ने को जो पंख चाहिए|
चाहिए तो बस तेज़ निगाह,
और बुलंद हौसलों का संग चाहिए|
- अक्षत डबराल

सुबह आती है

फिर रात का साया है,
आँखों पर कालिख लगाने आया है|
नए, काले स्लेट पर दौड़ेगा ख्वाब,
अपनी स्याही दवात ले,
यहाँ तस्वीरें बनाने आया है|
ज़ेहन की कूची है, अरमानों के रंग,
खूब रहती रौनक यहाँ, इन सब के संग|
रोज़ रात महफ़िल ज़मती है,
रोके से ये कहाँ थमती है|
सुबह आती है, वही महफ़िल से उठाती है,
रात की कालिख, आँखों से पूँछ जाती है|
- अक्षत डबराल