रविवार, 19 अगस्त 2012

फिर ख्यालों से दिल्लगी की तबियत हुई,
और हमने लफ़्ज़ों की डोर को थाम लिया|
अब किसके रोके रुकेगा ये सफ़र,
जब हमने मुसाफिर होना ही ठान लिया|
चल गए, तो जल गए, थम गए तो ख़त्म हुए,
हमने खुद को चिराग ही मान लिया|
अब और क्या मिटाएगा वक़्त निशाँ हमारा,
जब हमने खुद को ख़ाक ही मान लिया|
- अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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