गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?

क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?
क्यों न उसके घमंड को बर्बाद कर दूँ ?
रात में खिलता है तो उसका सिर तना रहता है |
सारे आसमान का बादशाह बना रहता है |
क्यों न सब तारों के मन की बात कर दूँ ?
क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?

दो होंगे, तो इसकी हुकूमत नहीं चलेगी |
इसकी चांदनी की फ़िज़ूल कीमत नहीं चलेगी |
न इसको देखने को लोग तरसेंगे,
न इस पर नाज़ नखरे बरसेंगे |
क्यों न इसके पापों का आज सब हिसाब कर दूँ ?
क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?

- अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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