रविवार, 24 अप्रैल 2011

दिन शाम रात

दरवाज़े से बाहर देखा , दिन खुद को समेट रहा था |
अपनी बिछाई चादर को , मायूस सा लपेट रहा था |

शाम खड़ी थी पेड़ के पीछे ,दिन को चुपचाप देख रही थी |
धीरे धीरे बढ़ाती हाथ पाँव ,बिना आवाज़ टेक रही थी |

कुछ देर में दिन उठा , अपना सामान ले चला गया |
शाम पसर गयी बेख़ौफ़ , जैसे उसका सिक्का जम गया |

शाम ने बहुत मौज करी ,लायी शमा , परवाने ,जुगनूओं कि फौज भरी |
पर हमेशा दुनिया में ,कहो कब किसीकी चली |

बस थोड़ी ही देर में , रात हुई आ खड़ी |
शाम के रुखसत होने कि , अब आ गयी थी घडी |

रात तो फिर रात है , उसकी जुदा ही बात है |
इत्र इसका रात रानी , आइना खुद चांद है |

रात ने भी रात भर , जी भर नूर बरसाया |
पर चाहकर भी वह उसे , अमर नहीं कर पाया |

रात कि तब , फिर ख़तम हुई बात |
दिन उग आया शर्माते हुए , और सो गयी रात |

ऐसे ही चक्र में , ये जहां चलता है |
रात - शाम सोती जगती हैं , दिन चढ़ता ढलता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

बात करते करते

कुछ ख़्वाबों, कुछ हकीकत कि बात करते करते ,
दिन से शाम, शाम से रात हुई, बात करते करते |
कुछ बोला, न कुछ सुना, पर बात हुई, बात करते करते |

अक्सर उनके चेहरे को देखा , बात करते करते |
वो आँखों का झुकना मिलना , बात करते करते |
कभी बढ़ना कभी डरना , बात करते करते |

हाथ माँगना उनका रूककर , बात करते करते |
दूर निकल आना साथ साथ , बात करते करते |
ख़्वाबों के घरोंदे ,उम्मीद के पुल बनाना , बात करते करते |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

और लिखने को क्या चाहिए ?

और लिखने को क्या चाहिए ?
एक हाथ , कलम , स्याही , दवात |
और लिखने को क्या चाहिए ?
बस चाह, उत्साह , उमंग , ज़ज्बात |

और लिखने को क्या चाहिए ?
बस लय , ताल , लफ्ज़ , तुकबंदी |
और लिखने को क्या चाहिए ?
कुछ ख्याल , सवाल , जवाब सतरंगी |

और लिखने को क्या चाहिए ?
बस खुले आँख, कान , विचार |
और लिखने को क्या चाहिए ?
कुल बस खाली कागज़ चार |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

आज नींद ...

आज नींद न आई
मुझे अपने वक़्त से |
ख्वाब भी न मिले मुझे ,
आज अपने तखत से |

कुछ देर बात करी ,
बाहर खड़े दरख़्त से |
लेकिन वो भी मेरी ,
आँखों कि तरह सख्त थे |

थोड़े लम्हे भी थे पड़े ,
जों यादों में ज़ब्त थे |
कुछ बोझिल हुए उम्र से ,
कुछ जोशीले मदमस्त थे |

सब यादों को खरोंच कर ,
आँखों से सुन , सोच कर |
ले चलता हूँ इनको सुलाने ,
पस्त हुए हैं अब ये थककर |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

आँखों कि माचिस |

मेरी आँखें , माचिस कि डिबियाँ ,
तेरे ख्वाब , हैं इसकी तीलियाँ |
हर किस्म , हर ढंग में हैं ,
कुछ सादी सी , कुछ फुलझड़ियाँ |

उजाला होता आँखों में जब,
तू सजाती मुस्कान कि लड़ियाँ |
मैं ढूंढता फिर सिरे इनके ,
जोड़ता इनकी आपस में कड़ियाँ |

हर रोज़ तुझे पाने का ,
यही है मेरे पास एक जरिया |
मेरी आँखों कि माचिस ,
और तेरे ख़्वाबों कि तीलियाँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

जीवन

जीवन क्या है, एक बेल नहीं ?
चढ़ाई , उतरन है हर दिन ,
कुछ आसान , कुछ खेल नहीं ?
कांटे , फूलों के गुच्छे हैं ,
इनका इससे अच्छा कहीं मेल नहीं ?
हमेशा ही उड़ता पंछी कहाँ ,
क्या ये भी कभी एक जेल नहीं ?
पटरियां बिछी हैं हर जगह ,
भागती , सरकती ,
क्या ये भी एक रेल नहीं ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

मेरा मन ... आजकल


कबसे अपना कंठ दबाये ,
मैं अपना गुस्सा छुपाये ,
बैठा हूँ दुबक कर , डर कर |

सतन कि जब अति हो गयी ,
बेकाबू जब मति हो गयी ,
अब उठ चला हूँ ,
साहस कर , समभल कर |

मुझे किसी एक से बैर नहीं ,
न जग से मेरी लड़ाई है |
मेरे ही मन का है अंतर्द्वंद्व ,
जिसने ये आग लगाई है |

भीतर ही भीतर जलता हूँ ,
अनजान डगर पर चलता हूँ |
मन हुआ है विद्रोही आजकल ,
देख कर अनदेखा करता हूँ |

पर जल्दी कुछ करना होगा ,
इसपर काबू करना होगा |
सीधे हो जाए तो अच्छा है ,
वरना कोई जादू करना होगा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

ऊनें ...

ख्यालों कि सतरंगी ऊनें हैं ,
उनसे कुछ कुछ चुन लेता हूँ |
आँखों कि सलायियों में पिरोकर ,
ख़्वाबों कि स्वेटर बुन लेता हूँ |

वह उन बहुत नर्म है ,
पाक अरमानो सी गर्म है |
इसमें कई सौ रेशे हैं ,
वफ़ा है, जुनूँ है , शर्म है |

इन सबको जोड़कर , यह स्वेटर ओढ़कर ,
जब मन सोने चलता है |
चाँद कब ढलता , दिन कब चढ़ता ,
कहाँ पता चलता है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 10 अप्रैल 2011

आप ...

आज नैनों में लौ ज़रा कम है ,
आप कुछ उजाला कर देंगे ?
बहुत लम्बा सफ़र है मेरा ,
साथी बन हौसला भर देंगे ?

तन्हाई की सीली दीवारें हैं खड़ी ,
आप इस मकान को घोंसला कर देंगे ?
कबसे हंसी न सुनी है यहाँ ,
आप यहाँ ख़ुशी का हल्ला भर देंगे ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

आसां नहीं ...

सुबह का जागा , दिन भर भागा |
शाम को लौटे ,
आधा सोया , आधा जागा |

दुनिया कि सतन , दिन भर कि थकन |
इन आँखों में , इन बाहों में |
कुछ ख्वाहिशें , कुछ सपने |
कुछ आँहों में ,कुछ राहों में |

आसां नहीं , आसां नहीं ,
सुनता हूँ दबी आवाज़ों में |
पर अनसुना कर चल देता हूँ ,
अपने ही अंदाज़ों में |
आखिर किसी को मंजिल मिली ,
कभी अपने ही दरवाजों में ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

क्या ...

क्या चाहूँ , तेरे काँधे का एक कोना ...
क्या मांगू , तेरे साथ का वो सोना ...
क्या कहूँ , तेरी तस्वीर का वो बोलना ...
क्या देखूं , तेरा सपनो के पट खोलना ...
क्या सुनूँ , तेरा मेरे कान में कुछ कह जाना ...
क्या सोचूं , तेरा जुल्फें खोल मेरे ख्वाबों में आना ...
क्या ढूँढू , तेरी झुकी पलकों तले वो खजाना ...
क्या छूँऊँ , तेरा मेरा हाथों को सहला जाना ...
क्या रोकूँ , तेरा आँख खुलते ही चला जाना ...

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

काश ...

काश ख्वाहिशों की कोई डाक होती ,
हम लिखकर ख़त डाल दिया करते |
काश सपनों की कोई आवाज़ होती ,
हम सुनकर भी जन्नत पा लिया करते |

काश ज़िन्दगी इतनी तेज़ न होती ,
हम कहीं थोड़ा रुक लिया करते |
काश फितरत इतनी सख्त न होती ,
हम कहीं थोड़ा झुक लिया करते |

काश कहीं थोड़ा जुड़ाव होता ,
हम वहीँ सच में बस लिया करते |
काश कहीं अपनी महफ़िल होती,
हम वहीँ सच में हंस लिया करते |

काश कहीं होता एक जहाँ ,
जों सही में अपना होता |
काश खुशियाँ ही होती बस अपनी ,
बाकी सब सपना होता |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

मेरा बिस्तर

मेरा बिस्तर ढूंढ रहा है अपना हमसफ़र ,
बहुत दिखता है ये बेसबर |
सलवटें पड़ गयीं इसपर ,
जब ये मुस्कुराया मुझे देखकर |

सुबह होते ही इससे मेरा ,
साथ छूट जाता है |
दिनभर पाबस्त खड़ा अकेला ये ,
तन्हाई से झूझ जाता है |

पर शायद अकेले ये ,
सपने लिखता रहता है |
और अपने दोस्त तकिये के ,
कानों में कहता रहता है |

बिछी हुई चादर से इसका ,
अब पुराना याराना है |
दो जिस्म एक जान हुए हैं ,
जब तक साथ है , निभाना है |

मेरा तो सपनो का जरिया है ,
आराम भरा एक दरिया है |
सिर्फ इसने ही नहीं किया इंतज़ार मेरा ,
मैंने भी दिनभर इसका किया है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"