बुधवार, 11 मई 2011

फकीरों कि लटों से उलझे हैं ख्याल ,
कभी मन की उँगलियों से सुलझा लेता हूँ |
निगाहें फिर उलझा देती है इन्हें ,
थोड़ा रूककर इनपर झुंझला लेता हूँ |

मेरे चुप रहने की ये भी एक वजह है ,
बाकी तो दुनिया से छुपा लेता हूँ |
कुछ रह ही जाते हैं लम्हे उधार ,
कुछ किसी तरह मैं चुका लेता हूँ |

अक्सर मन भागा करता है बेलगाम ,
बहुत मुश्किल से इसे रुका लेता हूँ |
करता है अपनी मनमानी बेहद ,
पर किसी तरह इसे झुका लेता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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