मंगलवार, 15 मार्च 2011

रोज़...

इन सूरज को ढकती इमारतों को देखता हूँ ,
रोज़ इनका कद बढ़ जाता है |
इन बदहवास सी भागती सड़कों को देखता हूँ ,
रोज़ इन पर कुछ लड़ जाता है |

इन घरों को जगते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कुछ न कुछ कम पड़ जाता है |
इन मंदिर मस्जिदों को थकते हुए देखता हूँ ,
रोज़ जहां फरियादें सर मढ़ जाता है |

इन दीवारों को घूरते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कहीं ध्यान गढ़ जाता है |
इन बुत से चेहरों को देखता हूँ ,
रोज़ कोई इनपे मुस्कान जड़ जाता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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