सोमवार, 6 सितंबर 2010

तब अब ...

एकांत में बैठे बैठे ,
कभी मन उठके चल पड़ता है |
उन गलियों, मैदानों, खंडहरों में ,
जहाँ कभी अपनी पैर की आहट पड़ती थी |
अब वहां सन्नाटा चीखता है |

कट गए , काट दिए ,
उजड़ गए, उजाड़ दिए ,
वो बूढ़े बुज़ुर्ग से लम्बे पेड़ |
जों वक़्त के आंधी तूफ़ान ने ,
तोड़े, मरोड़े , उखाड़ दिए |

कुछ पत्थर के तुकड़ें है ,
अनमने से , बेपरवाह पड़े है |
कभी घर बना होगा इनसे भी कोई ,
उम्र तो कब की बीत चुकी इनकी ,
मौत न आई, तो बेसहारा पड़े हैं |

वहां बचीं है बस कंटीली झाड़,
करती वीराने से प्यार लाड़,
आज उसकी भी जगह खाना चाहती है |
आप जों जाए वहां तो ,
सौतेली मां सी डांट - भगाना चाहती है |

हिम्मत कर में यहाँ आ तो गया ,
पर इतनी जल्दी क्या जा पाऊंगा |
ये जगह मेरी थी कभी ,
दुखड़ा ही सुन लूँगा इसका ,
कर तो कुछ न पाऊंगा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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