शनिवार, 20 मार्च 2010

बस उस दिन को जिया करता हूँ |

मेरा एक नन्हा सपना है ,
उसको मैं छुपा कर रखता हूँ |
दुनिया की नज़रों से बचाकर ,
सीने में लुका कर रखता हूँ |

नाम से ही टूट न जाए ,
हौले से पुकारा करता हूँ |
कहीं कोई चुरा न ले मुझसे ,
मन ही मन में डरता हूँ |

अपने उस सपने को लेकर ,
क्या कुछ नहीं करता हूँ |
सच हो जाए एक दिन ,
बस उस दिन को जिया करता हूँ |
बस उस दिन को जिया करता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

2 टिप्‍पणियां:

  1. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

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  2. ह्रदय से जों निकलता है मान्यवर, वो लिख देता हूँ ,
    आपने प्रशंसा की, इसका धन्यवाद |

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