शनिवार, 30 जनवरी 2010

पर चलता हूँ ....

जाने कितना मेरा सफ़र है ,
दिन का ये कौन सा पहर है ?
जग, नींद से अंख मलता हूँ ,
थकता हूँ, पर चलता हूँ |

कभी रेत से पाँव हैं जलते ,
कभी ठण्ड से कांप न थमते ,
कभी बिजली से लड़ता हूँ ,
थकता हूँ , पर चलता हूँ |

कुछ एक हमसफ़र मिले ,
उनसे हँस मिलता हूँ |
रस्ते अलग हो ही जाते हैं ,
रोता हूँ , पर चलता हूँ |

ख्वाब देखा था कभी ,
बहुत आगे जाने का ,
उसी ख्वाब के लिए जलता हूँ ,
रुकता हूँ , पर चलता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें