मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ये जीवन है

जन्म से जो शुरू हुई ये , सबसे बड़ी पहेली है |
सुलझाने को इसको हर ज़ंग खेली है |

कभी अर्श पर रख दे , कभी फर्श पर पटक दे |
कभी वसंत , और कभी शरद है |

कभी यूँ फिसल जाता , जैसे रेत है |
कभी ऐसे चुभता ,जैसे बेंत है |

हर हिस्सा चल - चित्र जान पड़ता |
कभी दुश्मन , कभी मित्र जान पड़ता |

कितने रंग है , किसने गिने है ?
जीने पड़ते हैं , जो भी मिले हैं |

कभी शहर की भीड़ , कभी सूना वन है |
इश्वर की सप्रेम भेंट ये , ये जीवन है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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