मंगलवार, 31 मार्च 2009

क्या ख़ुद को बदल पाओगे

क्या ख़ुद को बदल पाओगे

जीवन एक मरू-स्थल है ,
इसमे फसल पैदा कर पाओगे ?
वैमनस्य है इतना जग में,
इसमें साथी कहीं पाओगे ?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?

दूर बना कर लक्ष्य अपना ,
बीच में थक तो न जाओगे ?
देह जलाकर के अपनी ,
खाली हाथ तो नही आओगे ,
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?

मृग बनाकर दौडैएगी तृष्णा ,
क्या यह समझ पाओगे ?
मछली की आँख भूल ,
लिप्सा में तो न उलझ जाओगे ?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?

सूर्य बढ़ाएगा तम अपना ,
इसमें जल तो न जाओगे ?
भट्टी में तपना ही पड़ेगा ,
तभी स्वर्ण कहलाओगे |

क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?


- अक्षत डबराल "निःशब्द "

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